मजदूरों की लाशों पर ताज नहीं सज सकता – हादसों के जिम्मेदार उद्योगपतियों की नेताओं द्वारा प्रशंसा पर सवाल
8 सितंबर 2025 – औद्योगिक क्षेत्रों में एक के बाद एक हादसों और विस्फोटों ने मजदूर परिवारों की जिंदगी तहस-नहस कर दी। कहीं घर उजड़े, कहीं बच्चों का सहारा छिन गया, लेकिन जिन उद्योगपतियों की लापरवाही से यह त्रासदी हुई, वे आज भी नेताओं के साथ मंच पर तालियाँ बटोरते नज़र आते हैं। यह नज़ारा पीड़ित परिवारों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।
क्या मुआवज़ा ही इंसाफ़ है?
जब किसी गरीब मजदूर की जान चली जाती है, तो नेताओं की भूमिका सिर्फ़ चेक बाँटने तक क्यों सीमित रह जाती है?
क्या मजदूरों की सुरक्षा, उनके बच्चों की शिक्षा और परिवार का भविष्य नेताओं की जिम्मेदारी नहीं है?
सिर्फ़ मुआवज़ा देना इंसाफ़ नहीं, बल्कि असली जिम्मेदारी से भागना है।
जमानती धाराएँ और अधूरी जांच
हैरानी की बात यह है कि जिन उद्योगपतियों पर गंभीर हादसों का आरोप है, उन पर अक्सर सिर्फ़ जमानती धाराएँ लगाई जाती हैं। न गिरफ्तारी होती है, न कड़ी सज़ा।
नतीजा – आज तक कई बड़े हादसों की जांच फाइलों में दबकर रह गई।
फैक्ट्री की आग, गैस रिसाव, विस्फोट – हर मामले में मजदूरों के परिवार न्याय की राह ताकते रह गए, लेकिन जिम्मेदार उद्योगपति नेताओं की सरपरस्ती में सुरक्षित बने रहे।
CSR फंड: मदद नहीं, सौदेबाज़ी का हथियार
कंपनियाँ अपने CSR फंड नेताओं के करीबी NGOs को बांटती हैं।
कभी स्वास्थ्य शिविर, कभी शिक्षा योजनाओं के नाम पर यह पैसा दिखाया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि मजदूरों की सुरक्षा और भलाई पर यह खर्च नहीं होता, बल्कि राजनीतिक समीकरणों को साधने और उद्योगपतियों की छवि बचाने में लगाया जाता है।
नेताओं की भी जिम्मेदारी
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है –
“मजदूरों के खून पर किसी उद्योगपति का ताज नहीं सजना चाहिए। हादसों के जिम्मेदारों को सम्मानित करने वाले नेता उतने ही दोषी हैं जितने हादसा कराने वाले।”
आख़िरी सवाल
क्या मजदूरों की जान इतनी सस्ती है कि वह नेताओं और उद्योगपतियों की सौदेबाज़ी में कुर्बान होती रहे?
क्या CSR फंड और मंच की तालियाँ मजदूरों के खून से ज़्यादा कीमती हैं?
अब वक्त है कि समाज इन सवालों के जवाब मांगे और नेताओं से मजदूरों के प्रति असली जिम्मेदारी निभाने की मांग करे।
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