ज़हर बनती ज़मीन, बुझती नदियाँ: खापरखेड़ा थर्मल प्लांट की राख में दफ़न होता एक गाँव, और उससे उठता सवाल – कब जागेगा सिस्टम?

Khozmaster
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ज़हर बनती ज़मीन, बुझती नदियाँ: खापरखेड़ा थर्मल प्लांट की राख में दफ़न होता एक गाँव, और उससे उठता सवाल – कब जागेगा सिस्टम?

| 19 जून 2025, नागपुर, महाराष्ट्र

“यह सिर्फ़ राख नहीं, यह जीवन की राख बन चुकी है।”

यह शब्द हैं लीना बुद्धे के, जो एक दशक से अधिक समय से महाराष्ट्र के पर्यावरणीय न्याय के लिए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन इस बार उनकी आवाज़ में गुस्सा है — और शायद वह निराशा भी, जो तब आती है जब कोई व्यवस्था लगातार लोगों की पीड़ा से आँखें फेर लेती है।

हम बात कर रहे हैं खापरखेड़ा की — नागपुर से महज कुछ किलोमीटर दूर वह इलाका, जो कभी सिंचाई से लहलहाते खेतों, मीठे पानी की नहरों और हरे-भरे जीवन का गवाह था। लेकिन अब यहाँ सिर्फ़ राख है — और वह भी कोयले की राख, जिसे फ्लाई ऐश स्लरी कहा जाता है।

182 हेक्टेयर: एक आकड़ा, एक अपराध

182.81 हेक्टेयर ज़मीन, यानी 450 से अधिक फुटबॉल मैदान जितना क्षेत्र, फ्लाई ऐश से भर दिया गया है। और यह केवल कोई औद्योगिक अपशिष्ट नहीं, बल्कि पर्यावरणीय और मानवीय दृष्टिकोण से एक धीमा ज़हर है — ऐसा ज़हर जो मिट्टी को बाँझ बना देता है, भूजल को प्रदूषित करता है, और हवा में ऐसे कण छोड़ता है जो श्वसन रोगों से लेकर कैंसर तक का कारण बन सकते हैं।

इस ज़हरीली राख के फैलाव के पीछे है महाजेनको (Maharashtra State Power Generation Company – MahaGenco) — राज्य की सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली उत्पादन कंपनी, जिसने अपनी थर्मल यूनिट से निकली राख को एक सस्ते और “सुविधाजनक” तरीके से निपटाने के लिए आसपास की उपजाऊ भूमि में उड़ेलना शुरू कर दिया।

“हमने अपनी ज़मीन दी थी, राख के लिए नहीं”

गाँव के निवासी बताते हैं कि जब शुरू में जमीन अधिग्रहण की बात हुई थी, तब उन्हें आश्वासन दिया गया था कि विकास आएगा, रोज़गार मिलेगा, और पर्यावरणीय मानकों का पूरी तरह से पालन होगा।

“लेकिन हुआ इसका उल्टा,” कहते हैं खापरखेड़ा के एक किसान, जो अब खुद को बेरोज़गार और बीमार बताते हैं।

“पानी में बदबू है, मिट्टी में कोई जान नहीं, और हमारे बच्चों को हर महीने बुखार या दमा हो रहा है।”

पेंच नदी: जीवन से बीमारी तक का सफ़र

सबसे चिंताजनक स्थिति है पेंच नदी की। यह वही नदी है जिससे खापरखेड़ा समेत कई गांवों की जीवनरेखा जुड़ी है। खेतों की सिंचाई, पीने का पानी, पशुओं की जरूरत — सब कुछ इसी पर निर्भर था।

लेकिन आज इस नदी में राख और रसायनों की परतें बहती हैं। जल परीक्षण में भारी धातुएं जैसे आर्सेनिक, सीसा और क्रोमियम पाए गए हैं — जो मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे पैदा करते हैं।

> “हर बार जांच में खतरनाक स्तर की फ्लाई ऐश पाई जाती है, लेकिन फिर भी न तो MPCB (महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण मंडल) कोई सख्त कदम उठाता है, न MoEFCC (पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय),”— लीना बुद्धे

प्रशासन की चुप्पी = मिलीभगत?

पर्यावरण कार्यकर्ताओं और स्थानीय निवासियों का आरोप है कि सरकारी तंत्र या तो अंधा है, या जानबूझकर अंधा बना हुआ है।

सालों से दर्जनों याचिकाएं, जन सुनवाई, अदालत के आदेश और मीडिया रिपोर्टें सामने आ चुकी हैं — लेकिन ज़मीन पर कोई बदलाव नहीं आता।

“MPCB हर बार निरीक्षण करता है, लेकिन कार्यवाही का नाम नहीं लेता। पर्यावरण मंत्रालय केवल कागज़ों में सख्ती दिखाता है, ज़मीन पर कुछ नहीं।”

न्याय की राह: लंबी, लेकिन ज़रूरी

यह लड़ाई केवल राख के खिलाफ नहीं है, यह न्याय के लिए है।

“हर बार जब हम कोर्ट में जाते हैं, हमें साबित करना पड़ता है कि हम ज़िंदा हैं, और हमें जीने का अधिकार है,” लीना कहती हैं।

पर्यावरणीय मुकदमों में न्याय पाना भारत में बेहद चुनौतीपूर्ण है — न केवल तकनीकी और कानूनी जटिलताओं के कारण, बल्कि इसलिए भी क्योंकि विकास और उद्योग के नाम पर अक्सर न्याय को टाल दिया जाता है।

गाँववालों के सवाल — और वह चुप्पी जो जवाब नहीं देती

आज खापरखेड़ा के गाँवों में डर नहीं है, बल्कि गहरी चिंता और सवाल हैं:

हमारी ज़मीन कौन लौटाएगा?

हमारे खेतों में हरियाली कब लौटेगी?

पानी फिर से साफ़ होगा या हमारी नस्लों को बीमारियाँ विरासत में मिलेंगी?

जब हमने अपनी ज़मीन दी, तो बदले में ज़हर क्यों मिला?

और सबसे बड़ा सवाल:

“अगर व्यवस्था हमें नहीं बचा सकती, तो फिर उसका अस्तित्व क्यों?”

यह सिर्फ पर्यावरण नहीं, यह इंसाफ़ की लड़ाई है

खापरखेड़ा की राख एक प्रतीक है — उस गहराते संकट का जो सिर्फ़ इस गाँव का नहीं, पूरे देश का चेहरा बनता जा रहा है। यह संघर्ष है उन किसानों, मज़दूरों और बच्चों का, जिनका कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं होता, जिनकी आवाज़ टीवी पर नहीं गूंजती।

यह मुद्दा जलवायु परिवर्तन से भी बड़ा है।

यह नैतिक जवाबदेही, प्रशासनिक पारदर्शिता, और लोकतांत्रिक संवेदनशीलता का मामला है।

और अब…?

अब बारी है हम सबकी — पत्रकारों की, पाठकों की, नीति-निर्माताओं की, और हर उस व्यक्ति की जो अपने बच्चों को एक सांस लेने लायक हवा देना चाहता है।

क्योंकि यह सिर्फ एक गाँव की कहानी नहीं है।

यह उस व्यवस्था पर सवाल है, जो विकास के नाम पर विनाश पर चुप है।

 

 

 

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