16 लाख के बिल के लिए 18 घंटे तक रोकी गई मृतक मरीज की डेड बॉडी — पुलिस के हस्तक्षेप के बाद मिली बॉडी — क्या इंसानियत मर गई है?
शहर में एक ऐसी घटना घटी जिसने न केवल इंसानियत को शर्मसार किया बल्कि पूरे मेडिकल सिस्टम की खामियों को उजागर कर दिया।
एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान मरीज की मृत्यु हो गई। दुख की इस घड़ी में जब परिवार अपने प्रियजन के अंतिम दर्शन का इंतजार कर रहा था, अस्पताल प्रशासन ने 16 लाख रुपये के बिल के भुगतान के बिना शव देने से इनकार कर दिया।
यह खबर शहर के प्रमुख यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल गई। देखते ही देखते अस्पताल के बाहर मृतक के परिजनों के साथ सैकड़ों लोग, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार जमा हो गए।
एक वीडियो भी वायरल हुआ, जिसमें अस्पताल का एक अधिकारी यह कहते नजर आया — “पहले पूरा बिल चुकाइए, तभी शव मिलेगा।”
स्थिति बेकाबू होती देख पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। कई घंटों की मशक्कत और दबाव के बाद आखिरकार अस्पताल प्रशासन ने शव परिजनों को सौंपा।
अब सवाल यह है — क्या किसी मृतक के शव को इस तरह 18 घंटे तक रोकना कानूनी और नैतिक है? क्या इस तरह आर्थिक मजबूरी पर अमानवीय व्यवहार करना स्वीकार्य है?
जानकारों के अनुसार, बिल में लगाए गए चार्जेस सामान्य दरों से कहीं अधिक थे। यह जांच का विषय है कि ये चार्जेस कितने सही और वाजिब थे।
बिलकुल सच है — निजी अस्पताल चलाना सस्ता नहीं होता। महंगी मशीनें, डॉक्टरों और स्टाफ की सैलरी, बिजली, रखरखाव — सबमें खर्च होता है। लेकिन जब बात एक शव की हो, तो उस वक्त संवेदनशीलता और इंसानियत सबसे ऊपर होनी चाहिए।
सोचिए — एक परिवार जिसने अपने प्रियजन को खो दिया, उस पर इतना आर्थिक बोझ और मानसिक आघात… क्या यही हमारी व्यवस्था है? क्या यही इंसानियत है?
दुख की बात यह है कि कुछ निजी अस्पतालों में मरीजों को लाने के लिए बाकायदा मार्केटिंग एजेंट्स को रखा जाता है। फार्मा कंपनियों का दबाव रहता है कि डॉक्टर महंगी दवाएं लिखें, जिससे इलाज का खर्च आम मरीज के लिए बर्दाश्त के बाहर चला जाता है।
हां, यह भी सच है कि सभी डॉक्टर या अस्पताल ऐसे नहीं हैं। मेडिकल प्रोफेशन में कई ईमानदार और सेवाभावी डॉक्टर हैं। लेकिन कुछ मुट्ठीभर लोगों की वजह से पूरे प्रोफेशन की छवि धूमिल होती है।
आज सरकार जनरिक दवाओं को बढ़ावा दे रही है, ताकि इलाज सस्ता और सुलभ हो। लेकिन जब तक अस्पतालों में पारदर्शिता नहीं होगी, ऐसे मामले सामने आते रहेंगे।
इस तरह के विवादों को सुलझाने के लिए प्रशासन को एक स्वतंत्र समिति बनानी चाहिए जिसमें डॉक्टर, प्रशासनिक अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता और पुलिस के प्रतिनिधि शामिल हों — ताकि जल्द से जल्द, मानवीय तरीके से समाधान निकाला जा सके।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है — जब सरकार के पास पुल, सड़कें, बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स बनाने के लिए हजारों करोड़ रुपये हैं, तो फिर स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने के लिए पैसे क्यों नहीं हैं? क्यों सरकारी अस्पतालों की हालत जर्जर है? क्यों डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की इतनी कमी है? क्यों आज भी एक आम नागरिक को इलाज के लिए दर-दर भटकना पड़ता है?
क्यों स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दी जाती, जबकि यह सबसे बुनियादी मानव अधिकार है?
यह कोई पहली घटना नहीं है… और शायद आखिरी भी नहीं। लेकिन यह घटना पूरे सिस्टम के लिए एक करारा तमाचा है कि अब बदलाव की जरूरत है। ताकि फिर कोई परिवार इस तरह की अमानवीय परिस्थिति से न गुजरे।
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